यह सही है कि दलबदल कानून दलबदल को कुछ हद तक नियंत्रित करता है। यह किसी पार्टी के विभाजन को मान्यता नहीं देता है। लेकिन यह विलय को मान्यता देता है। ऐसे समय विधानसभा के सभापति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। वह कितना निष्पक्ष होगा, यह महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि वह सभापति बनने के पूर्व किस दल में था उसकी निष्ठा उसके आड़े आती है।
दलबदल उन विधायकों द्वारा चुनावी जनादेश का अपमान है जो एक पार्टी के टिकट पर चुने जाते हैं, लेकिन फिर मंत्री पद या अन्य लाभों के लालच के कारण दूसरे दल में जाना उचित समझते हैं। स्वाभाविक रूप से इसका सरकार के सामान्य कामकाज पर प्रभाव पड़ता है। महाराष्ट्र इसका उदाहरण है। 1960 के दशक में विधायकों द्वारा लगातार दलबदल की पृष्ठभूमि के खिलाफ कुख्यात ‘‘आया राम गया राम‘‘ का नारा गढ़ा गया था। दलबदल के कारण सरकार में अस्थिरता पैदा होती है। साथ ही प्रशासन भी प्रभावित होता है। यह कृत्य निश्चित ही हॉर्स-ट्रेडिंग को बढ़ावा देने वाला कृत्य है। साथ ही दलबदल विधायकों के खरीद-फरोख्त को भी बढ़ावा देता है जो स्पष्ट रूप से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनादेश के खिलाफ माना जाता है। इन सब बुराईयों को रोकने के लिए कानून केवल दो-तिहाई विधायकों के दलबदल को मान्यता देता है। महाराष्ट्र की शिवसेना के विधायकों के दलबदल ने इस कानून की खामियों को दूर करने एवं संशोधन की आवश्यकता को भी महसूस किया जा रहा है। यदि कोई राजनेता किसी पार्टी को छोड़ता है, तो वह ऐसा कर सकता है। लेकिन उस अवधि के दौरान उसे नई पार्टी में कोई पद नहीं दिया जाना चाहिये।
चुनाव आयोग ने सुझाव दिया है कि दलबदल के मामलों में इसके लिये निर्णायक प्राधिकारी होना चाहिये। इसके अलावा राष्ट्रपति और राज्यपालों को दलबदल याचिकाओं पर सुनवाई करने के प्रावधान होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है कि संसद को उच्च न्यायपालिका के एक सेवानिवृत न्यायाधीश की अध्यक्षता में स्वतंत्र न्यायाधिकरण का गठन किया जान चाहिये ताकि दलबदल के मामलों का तेजी और निष्पक्ष रूप से फैसला किया जा सके। कुछ कानूनी जानकारों का यह भी कहना है कि यह कानून विफल हो गया है और इसे समाप्त कर नया कानून लाया जाना चाहिए। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा था कि यह केवल अविश्वास प्रस्ताव के मामले में सराकारों को बचाने के लिये लागू किया जाता है।
महाराष्ट्र में शिवसेना पार्टी में हुए इस विघटन ने एक बार पुनः किसी राजनीतिक समस्या का कानूनी समाधान खोजने की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित किया है। साथ ही यदि सरकार की अस्थिरता का कारण दलबदल के आधार पर सदस्यों को अयोग्य ठहराया जाना है तो इसके लिये इन दलों के आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करना होगा ताकि पार्टी विखंडन की घटनाओं को रोका जा सके। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के खिलाफ विधायकों की यही शिकायत है तथा विभाजन का भी यही कारण प्रतीत होता है। भारत में राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने वाले कानून की अत्यंत आवश्यकता है। इस तरह के कानून में राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार के दायरे में भी लाया जाना चाहिए। साथ ही पार्टी के भीतर लोकतंत्र को मजबूत किया जाना चाहिये।
भारत में 1967 के आम चुनावों के बाद राज्यों में विधायकों द्वारा बड़ी संख्या में दलबदल किया गया था। इन दलबदलों के परिणामस्वरूप कई राज्यों में सरकारों को सत्ता से हटा दिया गया। तब तत्कालीन सांसदों ने इस मामले पर लोकसभा में गंभीर चिंता जताई थी। भारत के संविधान का अनुच्छेद 102 उन आधारों को निर्धारित करता है, जिनके तहत एक विधायक को सदन का सदस्य होने से अयोग्य ठहराया जा सकता है। अनुच्छेद 102 का पहला भाग ऐसे कई उदाहरणों का जिक्र करता है, जिनसे ऐसी अयोग्यता घोषित की जा सकती है। इनमें यदि कोई व्यक्ति सरकार के अधीन लाभ के लिए कोई अघोषित पद धारण करता है, यदि उसे सक्षम न्यायालय द्वारा विकृतचित घोषित किया गया हो, अथवा वह दिवालिया हो जाता है तो उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
अनुच्छेद 102 का दूसरा भाग संविधान की दसवीं अनुसूची को किसी भी सदस्य को अयोग्य घोषित करने का अधिकार देता है। यह दसवीं अनुसूची ही है जिसे दलबदल विरोधी कानून के रूप में जाना जाता है। दलबदल को ‘‘निष्ठा या कर्तव्य का जानबूझकर किया गया त्याग माना गया है, जिसे हम अपने दल के प्रति निष्ठा का त्याग करना कह सकते हैं। इस कारण उस समय समस्या की जांच के लिए तत्कालीन गृहमंत्री वाईबी चव्हाण की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया था। कुछ ही समय बाद समिति ने इस मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें न केवल यह परिभाषित किया गया कि दलबदल क्या है, बल्कि उन मामलों के लिए अपवाद भी बताए गए। इस समस्या से निपटने के लिए कानून लाने के दो असफल प्रयासों के बाद, आखिरकार 1985 में संविधान (52वां संशोधन) अधिनियम के माध्यम से दसवीं अनुसूची अस्तित्व में आई।
दसवीं अनुसूची ने उस समय यथास्थिति में तीन बड़े बदलाव किए। इसने एक विधायक के खिलाफ सदन के अंदर और बाहर दोनों जगह उनके आचरण के लिए अयोग्यता की ही कार्यवाही शुरू करने की अनुमति दी। इससे विधायकों को सदन में अपनी सीट गंवाने का खतरा भी है। सदन के अध्यक्ष ही एकमात्र प्राधिकारी थे, जो अयोग्यता कार्यवाही पर निर्णय ले सकते थे। साथ ही एक पार्टी के भीतर या किसी अन्य पार्टी के साथ विलय के मामलों में, विधायकों को अयोग्यता से सुरक्षित रखा गया था।
इस कानून के अस्तित्व में आने के कुछ समय बाद विधायकों और राजनीतिक दलों ने इसकी कमियां बताना शुरू कर दी। 1992 में दसवीं अनुसूची की वैधता और संवैधानिकता को एक महत्वपूर्ण मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दलबदल अधिनियम को चुनौती दी गई। सर्वोच्च न्यायालय ने अयोग्यता कार्यवाही पर निर्णय लेने के लिए अध्यक्ष की शक्ति को तो बरकरार रखा, लेकिन यह निर्धारित किया कि अध्यक्ष द्वारा लिया गया निर्णय समीक्षा के अधीन होगा।
साल 2003 में संसद में संविधान (91वां संशोधन) अधिनियम पेश किया गया। इसके परिणामस्वरूप दसवीं अनुसूची के तहत पार्टी में विभाजन के मामलों में विधायकों को दी गई सुरक्षा के प्रावधान हटा दिए गए। प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली एक समिति ने पाया कि लाभ के पद का लालच दलबदल और राजनीतिक खरीद-फरोख्त को प्रोत्साहित करने में एक बड़ी भूमिका निभाता है। नए कानून में यह भी कहा गया है कि दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य ठहराए गए किसी भी व्यक्ति को केन्द्र या राज्य स्तर पर मंत्री पद से स्वचालित रूप से अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। हालांकि संशोधन दलबदल विरोधी कानून को मजबूत करने के इरादे से लाया गया था, लेकिन इसमें कुछ बड़ी कठिनाईयां थीं। ये कानून वो समय अवधि परिभाषित नहीं करता है, जिसके भीतर एक विधायक के खिलाफ अयोग्यता कार्यवाही का फैसला किया जाना चाहिए। इस कानून के आधार पर सदन के अध्यक्ष की भूमिका अधिक से अधिक राजनीतिक हो रही है। विधानसभा अध्यक्षों द्वारा अयोग्यता का निर्णय या तो तुरंत किया गया या अनिश्चित काल तक लंबित रखा गया था। यह इस बात पर निर्भर करता था कि दोनों में से कौन सा निर्णय उस राजनीतिक दल के अनुकूल था, जिससे अध्यक्ष महोदय पहले से जुड़े थे।
इसके अतिरिक्त, अयोग्यता कार्यवाही पर न्यायालयों का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होने के कारण, केवल अध्यक्ष के निर्णय के खिलाफ या अयोग्यता कार्यवाही का निर्णय लेने में उनकी निष्क्रियता पर न्यायिक उपाय की मांग की जा सकती है। इसने दसवीं अनुसूची के तहत कार्यवाही को काफी हद तक बेकार बना दिया। यह विडंबना है कि चूहों (विधायकों) को जहाज से कूदने से हतोत्साहित नहीं किया गया है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में यह कहा है कि स्पीकर को ‘‘उचित समय‘‘ के भीतर उनके सामने लंबित अयोग्यता की कार्यवाही पर फैसला लेना चाहिए। सन् 2020 के कीशम मेघचंद्र सिंह बनाम माननीय अध्यक्ष मणिपुर के मामले में न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन का निर्णय दलबदल विरोधी कानून के लिए महत्वपूर्ण है। न्यायमूर्ति नरीमन ने अपने फैसले में दलबदल के मामलों से निपटने के लिए एक बाहरी तंत्र स्थापित करने की बात कही थी। हालाकि दसवीं अनुसूची को बिना दांत वाले शेर के अलावा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए गंभीर सुझावों को लागू करने के लिए संसद द्वारा अभी तक कोई कदम नहीं उठाया गया है। इसी कारण हम महाराष्ट्र में राजनैतिक घटना को असहाय होकर देख रहे हैं।
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