लगभग पांच दशक पहले इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल सत्ता के लिए निजी हुलफुलाहट के अलावा राज्य के सर्वशक्तिमान बनते जाने को भी उजागर करता है। क्या होता है, जब राज्य सारे जहां की वैध-अवैध शक्तियां अपने तईं जमा कर लेता है? क्या 47 साल पहले की इमरजेंसी आज भी अपनी विरासत नहीं ढो रही है?
छब्बीस जून 1975 को घोषित आपातकाल की सैंतालीसवीं बरसी मनाते हुए उन स्याह और शर्मनाक दिनों पर हम झुब्ध और उत्तेजित हैं। वह निश्चित ही विभीषिका थी और काला अध्याय भी, पर उस दौर का उन्नीस महीने में पटाक्षेप हो गया, लेकिन छियान्नबे महीनों से अघोषित आपातकाल दिन-पर-दिन क्रूर और कलुषित होता जा रहा है। हमारी संवैधानिक, जनतान्त्रिक और जनवादी हसरतों पर कुठाराघात करता और कालिख पोतता हुआ। लोकतंत्र एक ऐसा शब्द है जिसका दुनिया भर में बेइंतहा दुरूपयोग हुआ है। मौजूदा सरकार ने तो इन महीनों में उसे एक फ़ालतू और बेहूदे शब्द में पतित कर दिया है।
उन्नीस महीने से छियान्नबे कई गुना ज़्यादा हैं, ठीक उसी तरह घोषित से अघोषित की परियोजना और उद्देश्य भी कहीं व्यापक हैं। यह बहुस्तरीय और बहुमारक हैं, उसी अनुपात में विध्वंसक और विनाशक भी। इसकी चौपट-चपेट की ज़द से कोई बाहर नहीं, नियम, क़ानून, परम्परा, विधान, प्रक्रिया, मूल्य, राजनीति, न्याय, मीडिया, बाज़ार, व्यवस्थाएं, विरासत, वसीयत, भाईचारा, समरसता, विविधता, लोकलाज, मर्यादा, शोभनीयता और सभी कुछ। अब संसद के हर सत्र से लोकतंत्र और लुटापिटा, अपंग-असहाय निकलता है। हर कश्मीर फ़ाइल्स, ईडी, जेल, ज्ञानवापी, नूपुरोवाच, बुलडोजर, अग्निवीर, महाराष्ट्र, क्लीन चिट, बदला, तीस्ता सब धड़ल्ले से साथ-साथ या आगे-पीछे, नया-भारत निर्माण की गरज़ से, चलता रहता है।
‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है’ – कहने की बात तो ख़ैर खिलखिलाहट में उड़ा दी जायेगी, पर यह जघन्य समय हमारे कथित महान लोकतंत्र के जीवन-मरण का समय है। शैशव काल से ही वात-पित्त-कफ से ग्रस्त, पर कम अपनाया गया प्रजातंत्र जून 1975 में बुरी तरह दुत्कारा गया। व्यक्तिगत सत्ता को बचाने के लिए यह संविधानेत्तर षड़यंत्र, अत्याचार था। मूलाधिकार निरस्त हुए, मीडिया नथ लिया गया, संजय गाँधी सर्वसर्वोपरि थे और चाटुकार नत्थुओं की पौ-बारह थी। कैफ़ी आज़मी के सम्मान में सुनाई एक ग़ज़ल का शेर था, ‘माँ की मनमानी तो बेटे की मनमानी कभी\ गर्दिश में देश का सितारा है, कहो है कि नहीं।’
जनता पर बहुत ज़्यादतियाँ हुईं जो सेंसरशिप के कारण रिपोर्ट ही नहीं हुईं, पर इंदिरा गाँधी वाले आपातकाल को देखने की अनेक दृष्टियाँ हैँ। यह भी माना जाता है कि उनके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला न आता तो वे क़ानूनी तानाशाही का क़दम न उठातीं। उन्हें घेर लिया गया था और जेपी के लोग उनकी सत्ता की ‘बलि’ से कम पर राज़ी नहीं थे। अदालती फ़ैसले ने उन्हें घनघोर असुरक्षा और अविश्वास में ला गिराया था और उनका बहुचर्चित साहस जवाब दे गया था, नहीं तो वे शायद राजनीतिक लड़ाई लड़तीं। तमाम सरकारों की तरह उनकी सरकार भी आंदोलनों को कुचलने में अपना लोहा मनवा चुकी थी। अन्य कारकों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इंदिरा गाँधी बार-बार आगाह कर रहीं थीं कि साम्प्रदायिक शक्तियां फिर सिर उठा रही हैं।
74 के आंदोलन से ‘आरएसएस’ के मंसूबे साफ़ दिख रहे थे। यह सत्ता के लिए उसका पहला सुनियोजित पैंतरा और संगठित हमला था। अर्थशास्त्री प्रोफेसर पृथ्वीनाथ धर ने इंदिरा गाँधी के साथ साढ़े छह साल काम किया, वे उनके सचिवालय के प्रमुख और उनके सलाहकार थे। श्रीमती गाँधी से परिचय से बहुत पहले से वे जयप्रकाश नारायण से परिचित थे। उनकी एक किताब है – ‘इंदिरा गाँधी, द इमरजेंसी ऐंड इंडियन डेमोक्रेसी।’ उनका कहना था कि आपातकाल भारत में राजनीति की विकास प्रक्रिया को ज़बर्दस्त धक्का था।
‘संविधान सभा’ में डॉक्टर आम्बेडकर के भाषण – ‘अब जबकि हमारे पास संविधान है, हमें अराजकता के व्याकरण को छोड़ देना चाहिए’ – को उद्धृत करते हुए प्रो. धर मानते हैं कि इमरजेंसी के लिए इंदिरा गाँधी और जयप्रकाश नारायण दोनों ज़िम्मेदार हैं। उनको लगता था कि जेपी- इंदिरा के बीच दूरी कम होगी और इसके लिए इमरजेंसी के पहले और बाद में उन्होंने कोशिश भी की, पर इसमें दोनों के अहं बड़ी रुकावट रहे।
‘जेपी श्रीमती गाँधी से वैसे सम्मान की उम्मीद करते थे, जैसा नेहरू गाँधीजी को देते थे, जबकि इंदिराजी उन्हें ‘अराजकता का सिद्धांतकार’ और उनकी राजनीति को ‘असम्भावित की कला’ मानती थीं। प्रो. धर के मुताबिक यह कोई नयी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के लिए संघर्ष करने वाले क्राँतिकारी नेता और देश पर अपनी तानाशाही थोपने पर उतारू एक राजनीतिज्ञ के बीच प्रतियोगिता नहीं थी। जेपी की आत्मधन्यता और इंदिरा गाँधी की उन्मादित शैली के बीच देश की राजनीति का ध्रुवीकरण हो गया था और दोनों ने ही प्रजातंत्र को पराजित किया, क़ानून के राज्य में आस्था की कमी को दर्शाया और अंततः जेपी अप्रभावी क्राँतिकारी और इंदिरा अन्यमनस्क तानाशाह साबित हुईं।
वह 26 जून, 75 के सूर्योदय के कुछ पहले का समय था, जब मंत्रिमंडल ने आपातकाल को मंज़ूरी दी। उस समय वहाँ तीन ही अधिकारी थे, केबिनेट सेक्रेट्री बीडी पांडे, पीएन धर और एचवाई शारदा प्रसाद। धर ने उन दोनों से उदास स्वर में कहा, ‘क्या आप लोग भी ऐसा मानते हैं कि हम आज एक पाप में भागीदार बन गए?’ धर ने लिखा है कि उस समय ‘योजना आयोग’ के उपाध्यक्ष पीएन हक्सर ने शारदा प्रसाद और उनसे कहा था, ‘हमें सिस्टम में रहकर स्थिति को और बदहाली से बचाना होगा। इस्तीफ़ा देकर आप अपने अहम को ज़रूर तुष्ट करोगे, पर सिस्टम के बाहर आपकी हैसियत कुछ भी करने की नहीं होगी।’
धर मानते थे कि इंदिरा गाँधी इमरजेंसी से असहज थीं और इससे छुटकारा चाहती थीं। इंदिरा गाँधी की करीबी पुपुल जयकर के अनुसार आध्यात्मिक गुरु जे कृष्णमूर्ति की सलाह पर इमरजेंसी हटायी गयी। धर नहीं मानते कि खुफ़िया एजेंसियों द्वारा चुनाव में जीत की भरपूर उम्मीद बँधाने पर यह किया गया। धर ने लिखा कि ‘वे देश की स्थिति के बारे में सब जानती थीं, पर सामने स्वीकार नहीं करती थीं।’ उन्होंने सोच-समझकर आपातकाल हटाने का जोख़िम लिया। इंदिराजी शायद चुनावी गंगा में उतरकर अपने पाप धोना चाहती थीं। अब हम सब यह जानते हैं कि दंड भी मिला और पाप भी नहीं धुले, सैंतालिस साल बाद दाग़ कहाँ मिटे। गुजरात के नरसंहार के धब्बे भी कहाँ मिटने वाले हैं, ‘ख़ून फिर ख़ून है, टपकेगा तो जम जायेगा….।’
मुसीबत यह है कि अपना लोकतंत्र दरअसल नेता के आभामंडल से चमकता है और तब काँग्रेस हो या अब भाजपा, उनके रहमोकरम पर साँसें लेता है। जनता की मनोभूमि से वह निर्मूल है। जनता की उससे बेगानगी पुरानी है और अब बेतहाशा है। हाल के चुनावों से यही साबित हुआ कि जनता को लोकतंत्र, समानता, समरसता, धर्मनिरपेक्षता आदि से कोई सरोकार नहीं। इसलिए आर्त्त-अपीलें हैं, लोकतंत्र के लिए विपक्ष एक हो, और जिन सारे दलों पर लोकतंत्र की हवा बाँधी जाती है वे सभी आंतरिक रूप से सिरे से अलोकतांत्रिक हैं।
ऐसा मानने वाले कम नहीं हैं कि इंदिरा की हार लोकतंत्र की जीत नहीं, रणनीतियों की हार थी, कि हमारा लोकतंत्र स्वस्थ और सक्रिय नहीं है। इमरजेंसी लगी तो विरोध में सड़क पर कोई नहीं निकला। जेपी ने हैरत से कहा, पता नहीं मेरे आकलन में कहाँ ग़लती हुई। तीन महीने में पेरोल की बयार बह रही थी। सत्ता गंवाने के मात्र उन्नतीस महीने बाद वे फिर सत्ता पर सवार थीं और उनके न रहने पर उनकी सहानुभूति में काँग्रेस की आँधी चल गयी।
2019 में मोदी चुनाव में और मालामाल हो गये। लोकतांत्रिक संस्थाओं का जाल बिछा, पर लोकतंत्र की भावना उसमें उलझकर रह गयी, जनता तक वह प्रवाहित ही नहीं हुई। छियान्नबे माह से हम सब, हर क्षेत्र में देश के स्वनामधन्य कर्णधारों को सरकार के असंवैधानिक औऱ अनैतिक कामों में उत्साहित कारसेवकों की तरह शोक, शर्म, हैरानी और क्षोभ से देख रहे हैं।
अब जब भी देश इस अँधेरी सुरंग से बाहर निकले, जिसमें छियान्नबे महीनों से उसे डाल दिया गया है, तब लोकतंत्र के प्रति गम्भीर होना और जनता को जागरूक करने को सबसे बड़ा सबक मानना चाहिए। तब तक हम सब उनके हवाले हैं जो कतई अन्यमनस्क नहीं, बल्कि सौ-टंच खरे तानाशाह हैं। ये नये युग के शत्रु हैं। बस देखते रहिये : ‘जल्लाद पहनाएँगे कफ़न, क़ातिल नौहागर होंगे।’ (सप्रेस)
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