योगेन्द्र यादव

हमारे समय की एक पहचान यह भी है कि अपने व्यावसायिक ज्ञान में खूब महारत रखने वाले युवा सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक रूप से बेहद लद्धड दिखाई देते हैं। वे अत्याधुनिक ‘आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस’ उर्फ ‘एआई’ की वैश्विक कंपनियों में शीर्ष स्तर के वैज्ञानिक हो सकते हैं, लेकिन अपने आसपास के साम्प्रदायिक, गैर-बराबरी, लैंगिक-असमानता जैसे रोजमर्रा के सवालों पर रूढ, दकियानूसी राय रखते हैं। ऐसे लोगों के लिए इन दिनों प्रोफेसर राजीव भार्गव की एक किताब की बहुत चर्चा है। इसी किताब पर टिप्पणी करता योगेन्द्र यादव का यह लेख।

आपकी भेंट ऐसे पढ़े-लिखे, डिग्रीधारी हिन्दुस्तानियों से हुई होगी जो बेहतरीन इन्वेस्टमेंट कंसलटेंट हैं और शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव की बारीक व्याख्या करते हैं, लेकिन महिलाओं के बारे में वही पुरानी सड़ी-गली अक्खड़ बातें करते हैं। या फिर, आप उस ब्रिलिएंट सॉफ्टवेयर इंजीनियर के बारे में सोच सकते हैं जो पश्चिमी और गोरे लोगों के प्रभुत्व के महीन रेशे को भी पकड़ लेता है, लेकिन जाति-व्यवस्था के बारे में मासूमियत से पूछता है कि वह अब कहाँ बची है।

आपकी मुलाकात ऐसे डॉक्टर से भी हुई होगी जो यों तो किसी ऐरे-गैरे पैथ-लैब की रिपोर्ट पर यकीन नहीं करता, लेकिन इस बात पर यकीन करने के लिए झटपट तैयार मिलता है कि जल्दी ही भारत में मुसलमानों की आबादी हिंदुओं से ज्यादा होने वाली है। तकनीक की दुनिया के ज्ञानी, लेकिन अपने सामाजिक सोच में कत्तई मूर्ख। यह हमारे आज के पढ़े-लिखे भारतीयों की एक खास पहचान है। यह सिर्फ भारत की ही बात नहीं, हमारे वक्त का लक्षण है।  

भारत और भारत के बाहर के उच्च शिक्षा संस्थानों के बीच मुझे इस मामले में अंतर जान पड़ता है। मिसाल के लिए, अमेरिका के समाज में आपको बड़े पैमाने पर अज्ञानता, कट्टरता और नस्लवाद का चलन मिल जायेगा, लेकिन जैसे ही आप किसी नामी-गिरामी विश्वविद्यालय के परिसर में कदम रखते हैं, आपका ऐसी चीजों से सामना नहीं होता। कम-से-कम प्रत्यक्ष बातचीत में तो ये चीजें देखने को नहीं ही मिलतीं। वहां स्त्रियों के प्रति विद्वेष-भावना, गोरे लोगों की प्रभुताई या फिर ‘इस्लाम-भीति’ (इस्लामोफोबिया) से किसी किस्म का जुड़ाव बड़े शर्म का विषय माने जाते हैं।

बौद्धिकता के अहंकार और सामाजिक अज्ञानता का घातक मेल

हमारे नामी-गिरामी, उच्च शिक्षा-संस्थान, जैसे – आईआईटी, मेडिकल कॉलेज तथा मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग सिखाने वाले हजारों संस्थान ऐसे पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाये हैं। यहां आपको बौद्धिकता के अहंकार और सामाजिक अज्ञानता का एक ऐसा घातक मेल देखने को मिलेगा, जो हद दर्जे की धर्मांधता, ठोस पूर्वाग्रह और स्वार्थ की संस्कृति को जन्म देता है। यही परिवेश ‘अक्ल के अंधे और ज्ञान के पूरे’ नागरिक पैदा करता है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था के भीतर प्रश्न पूछने की संस्कृति का अभाव है। हमारे सार्वजनिक जीवन में तो खैर, इसका नितांत अभाव है ही। बात चाहे क्लासरूम की हो या फिर किसी राजनीतिक संगठन की – हर जगह प्रश्नाकुलता का नहीं, बल्कि आज्ञाकारिता की संस्कृति का चलन है।

हमें अपने सुविधाजनक दायरे में रहना, अपने जैसे सोच-विचार और सामाजिक पृष्ठभूमि वाले लोगों के साथ उठना-बैठना अच्छा लगता है। यहां हमारी सोच को चुनौती देने वाला कोई नहीं होता। अगर कभी किसी ऐसे व्यक्ति से भेंट हो गई जो हमारी सोच को चुनौती देता लगे तो हम उससे निपटने के लिए गाली-गलौज का सहारा लेते हैं या कन्नी काट लेते हैं। हमारे सार्वजनिक जीवन में तर्क है, वितर्क है, कुतर्क है, लेकिन विवेक नहीं है। युक्तिसंगत सोच-विचार नहीं है। हमारे सार्वजनिक जीवन की यही बीमारी आज के वक्त में अधिनायकवादी प्रवृतियों को शह दे रही है।

सार्वजनिक विवेक (पब्लिक रीज़न) हमारे सामूहिक जीवन की सबसे बड़ी जरूरत है। हमें एक ऐसी संस्कृति की जरूरत है जिसमें अच्छाई-बुराई के बारे में खुले में, पारदर्शी ढंग से चर्चा हो, जहां मुश्किल-से-मुश्किल और बुनियादी किस्म के सवाल पूछे जायें और सीधे-स्पष्ट उत्तरों की मांग की जाये। एक ऐसी संस्कृति जहां तथ्यों को परखा जाता हो और जहां तर्क किसी बाहरी सहारे के नहीं, बल्कि अपने पैरों पर खड़े होते हों।  

ऐसे में प्रोफेसर राजीव भार्गव की नई किताब ‘बिट्वीन होप एंड डेस्पेयर : 100 एथिकल रिफ्लेक्शन्स ऑन कंटेम्पररी इंडिया’ Between Hope and Despair : 100 Ethical Reflections on Contemporary India आई है। यह एक ऐसी किताब है जिसे आप नई पीढ़ी के ऐसे भारतीय को देना चाहेंगे, जिसमें आपको उम्मीद दिखाई दे। दशकों से मेरी ख्वाहिश थी कि राजीव भार्गव ऐसी ही कोई किताब लिखें। वे जाने-माने राजनीति-दार्शनिक हैं। उन्होंने ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ (जेएनयू) और दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रों की कई पीढ़ियों को शिक्षा दी है।  

सार्वजनिक विवेक सामूहिक जीवन की सबसे बड़ी जरूरत

उन्होंने हमें पढ़ाया कि विवेक संगत तर्क-वितर्क कैसे किया जाय, खुले दिमाग से कैसे सोचें, जिस विचार से हम असहमत हैं उसके प्रति ईमानदारी कैसे बरतें और अपने तर्कों को सुसंगत रूप से कैसे रखें। उन्होंने हमें अपने वैचारिक विरोधी को पछाड़ने की कला नहीं सिखाई, बल्कि विरोधी की बात में भी सच खोजने की राह दिखायी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित उनकी अकादमिक पुस्तकों से कहीं ज्यादा इंतजार मैंने उनकी इस पुस्तक का किया है क्योंकि जो उनकी कक्षा में नहीं बैठे, वे इस पुस्तक के सहारे सार्वजनिक विवेक की कला को सीख सकेंगे।

प्रोफेसर भार्गव ने ‘द हिन्दू’ अखबार के लिए कुछ लेख लिखे हैं जो इस पुस्तक में संकलित हैं। आज हम जिन नैतिक सवालों का रोज सामना करते हैं उन पर इस पुस्तक में विचार किया गया है। मसलन – हमें एक संविधान की जरूरत क्यों है? लोकतंत्र हमारे लिए क्यों मूल्यवान है? राष्ट्रीय गौरव से हमारा क्या और कैसा नाता हो? क्या अल्पसंख्यकों के अधिकार जैसी अवधारणा को अच्छा माना जा सकता है? सेक्युलरिज्म से हमारा क्या आशय है? माफ करने और बुरी बातों को भुला देने के क्या मायने हैं? क्या इस सत्याभासी (पोस्ट-ट्रूथ) समय में तथ्य सचमुच मायने रखते हैं?

भारत नाम के विचार को पुष्ट करती विचारधारा

प्रोफेसर भार्गव ने इन प्रश्नों के जो उत्तर दिये हैं वे किसी एक विचारधाराई बनावट या ‘वाद’ के सांचे में फिट नहीं बैठाये जा सकते। अगर कोई विचारधारा पुस्तक में शुरू से आखिरी पन्ने तक मौजूद है तो उसके बारे में यही कहना ठीक होगा कि वह भारतीय संविधान की विचारधारा है- भारत नाम के विचार को पुष्ट करती विचारधारा है। भारत के संविधान निर्माताओं ने उस आपाधापी और गर्मागर्मी के वक्त में भारतीय संविधान का जो औचित्य-निरूपण किया था, भारतीय संविधान के दर्शन की रक्षा में उनसे कहीं बेहतर, गहरे और महीन तर्क प्रोफेसर भार्गव ने दिये हैं। उन्होंने हमें सच के अनुसंधान में लगने की सच्ची राह दिखायी है।  

हमारे समय में राजनीतिक दर्शन के विद्यार्थी देख पायेंगे कि पुस्तक के लेखों में विवेचित प्रश्नों में किस तरह अकादमिक बहसों की एक अंतर्धारा बह रही है। ऐसी कुछ अकादमिक बहसों में स्वयं प्रोफेसर भार्गव ने अपने अकादमिक अवतार में योगदान किया है। पुस्तक के पाठक देख पायेंगे कि उनके सामने एक ऐसे लेखक की रचना है जो विश्लेषणात्मक-दर्शनशास्त्र (एनालिटिकल फिलॉस्फी) की परंपरा में सिद्धहस्त है।

लेखों में कभी-कभार चार्ल्स टेलर और अलाडेयर मैकिन्टायर का जिक्र लेखक के रूझान का इशारा तो करता है, लेकिन इन लेखों की खूबी यही है कि प्रोफेसर भार्गव हमारे समय के बड़े और कठिन प्रश्नों का उत्तर बगैर कोई अकादमिक शब्दजाल बांधे कर पाये हैं। वे अपने पाठक से यह अपेक्षा नहीं रखते कि उसने राजनीतिक दर्शन की गहन-गंभीर किताबें पढ़ रखी होंगी। न ही वे पाठक को किसी बनी-बनाई राजनीतिक विचारधारा की ओर ढकेलते हैं। उनकी पुस्तक अपने पाठक को आमंत्रण देती है कि वे उन बुनियादी प्रश्नों को पूछें जिसे ना जाने कब से पूछना चाहते थे।  

यह किताब सरल, लेकिन ताकतवर और टिकाऊ भेद-विभेद के सहारे अपने पाठक को इन प्रश्नों के उत्तर सोचने में मदद करती है, एक नयी दृष्टि देती है और अपने सबसे बेहतरीन अर्थों में गहरी नैतिक तर्कबुद्धि प्रस्तुत करती है। इसे हमारे समय में दर्शनशास्त्र के एक इश्तहार के रूप में भी पढ़ और देख सकते हैं। मैं नौजवानों से हमेशा कहता हूं कि आप अमर्त्य सेन और जॉन रॉल्स को पढ़िए, भले ही आपकी रूचि इन लेखकों की विषय-वस्तु में ना हो या इन लेखकों से आपकी सहमति ना बनती हो, इन्हें तर्कबुद्धि और युक्तिसंगत सोच के नमूने के तौर पर पढ़िए। राजीव भार्गव की किताब भी ऐसी ही किताबों में शुमार है।  

इस किताब को आप अपने तेज-तर्रार युवा दोस्त को भेंट करके देखिये। हो सकता है वो किताब में दिये गये उत्तरों से अपने को सहमत होता पायें। अगर ऐसा होता है, तो समझिए कि इस अंधेरे समय में हमने अपने गणतंत्र की रक्षा में एक और रंगरूट खड़ा किया है। अगर वह किताब के उत्तरों से सहमत नहीं होता तो और भी अच्छा, क्योंकि तब यह माना जायेगा कि यह किताब आलोचनात्मक बुद्धि से भरे एक चिंतनशील नागरिक को गढ़ने में कामयाब रही, अक्ल से मंद को अक्लमंद बनाने में सफल हुई। (सप्रेस)

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