जीवन के अनेक पहलुओं, खासकर आर्थिक लेन-देन के आभासी होते जाने की तरह अब मुद्रा भी आभासी हो गई है और इसे नाम दिया गया है – ‘क्रिप्टो।’ क्या यह ‘क्रिप्टो करेंसी’ सभी को समान रूप से उपलब्ध हो सकेगी? क्या इस मुद्रा को चलन में रखने के लिए सभी को आसानी से खास दर्जे का इंटरनेट मुहैय्या होगा? और क्या भारत सरीखे गैर-बराबर समाज में इस तरह का लेन-देन कारगर हो सकेगा?
केन्द्रीय बजट(2022) में क्रिप्टोकरेंसी पर हमारी सुशिक्षित वित्तमंत्री ने खासी बात की है और मीडिया के जरिये आप सभी सुसंस्कृत पाठकों ने भी क्रिप्टो दुनिया में भारतीय दखल की तस्वीर के कई पहलू जान-समझ लिए होंगे। यहां यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि 2021 में भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा क्रिप्टो करेंसी उपयोगकर्ता देश था। ध्यान रखें कि वियतनाम इस मामले में दुनिया में अव्वल है और पड़ोसी पाकिस्तान क्रिप्टो के इस्तेमाल में दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी ताकत है।
आने वाले सालों में हमारे देश में क्रिप्टो इस्तेमाल में तेजी से इजाफा होगा, इसकी पूरी संभावना है, लेकिन क्रिप्टो का उपयोग करने वाले लोग कौन होंगे? 2020 में देश के चार बड़े डिजिटल हब – पुणे, बंगलौर, गुडगांव और हैदराबाद में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 73 प्रतिशत भारतीय आईटी प्रोफेशनल क्रिप्टोकरैंसी की उठापठक से अनभिज्ञ थे और उन्हें इस क्षेत्र की सामान्य समझ भी नहीं थी। महज आठ प्रतिशत आईटी प्रोफेशनल्स ने कहा कि वे क्रिप्टो के बारे में जानते हैं, जबकि तीन प्रतिशत ने स्वीकार किया कि वे क्रिप्टो में निवेश कर चुके हैं, या करने की तैयारी में हैं। अगर आईटी प्रतिभाओं को हम देश के डिजिटल संजाल के सबसे जानकार लोग मानें तो वे भी क्रिप्टो के मामले में अशिक्षित नजर आते हैं।
इंटरनेट की पहुंच के आंकड़ों के आधार पर कोई यह तर्क दे सकता है कि धीरे-धीरे ही सही गांवों, गरीबों, वंचितों तक भी इंटरनेट की पहुंच हो रही है। इस मासूम तर्क के साथ यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि दिल्ली, मुंबई, बंगलौर की चमचमाती बिल्डिंगों में पल—बढ़ रहे बच्चों और मंडला, बड़वानी, झाबुआ के सुदूर देहात में फेसबुक आईडी बना रहे युवाओं के बीच एक बात तो समान है कि वे दोनों ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि दोनों की गति और इस्तेमाल के तौर-तरीकों में जमीन-आसमान का फर्क है। अभिजात्य घरों के बच्चे जहां ‘कोडिंग,’ ‘इंटरनेट आफ थिंग्स,’ ‘डॉर्क वेब’ के सहारे रोबोटिक्स की अल्गोरिदम को साधने की कोशिश कर रहे हैं, तो वहीं गांवों की पथरीली जमीन पर बैठे अधिकांश युवा सोशल मीडिया के जरिये परोसे जा रहे कंटेंटनुमा जहर और नफरती भाषणों के अलावा हॉलीवुड—बॉलीवुड के सपनों को देखने को ही अपना हासिल मान चुके हैं।
यही वजह है कि एक तरफ हम भारत को ‘डिजिटल रेडीनेस स्कोर’ (डिजिटल टूल्स को सीखने की तैयारी) की रिपोर्ट में 100 में से 63 अंकों के साथ अव्वल पाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ देखते हैं कि हमारी 135 करोड़ आबादी में से 110 करोड़नागरिक फेसबुक जैसे एप पर भी नहीं हैं और 118 करोड़ आबादी ईमेल का इस्तेमाल करने की सामान्य दक्षता भी नहीं रखती है। जाहिर है, ऐसे हालात में यह कयास लगा पाना कोई मुश्किल काम नहीं है कि डिजिटल करैंसी से कौन से लोग फायदा उठाएंगे और कौन इसमें अपनी पूंजी गंवाने के लिए अभिशप्त होगा।
देश में डिजिटल असमानता को इस तरह समझा जा सकता है कि एक तरफ हम बढ़ते सड़कों के जाल और मोटर वाहनों की तादाद को तरक्की का सूचक मानकर खुश होते हैं, लेकिन दूसरी तरफ देखते हैं कि कॉरपोरेट की भूख शांत करने वाले एक्सप्रेस-वे औरगांवों-देहातों को जोड़ने वाली सड़कों में भारी असमानता है। ठीक वैसा हीहाल डिजिटल दुनिया का भी है। 5जी से लेकर 2जी तक की सुविधा वाले इस समय में 5जी नेटवर्क के इस्तेमाल पर जहां चंद ताकतवरों का कब्जा है, तो बाकी जनता के बीच 2जी नेटवर्क के गोल-गोल घूमते पहिये की स्पीड से यह खामख्याली पैदा करने की कोशिश की जा रही है कि वह भी ग्लोबल दुनिया से जुड़ चुकी है।
‘डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोवाइडर्स एसोसिएशन’ (डीआईपीए) की हालिया रिपोर्ट बताती है कि पूरे देश में डिजिटल सेवाओं की बढ़ती मांग और बढ़ते ऑनलाइन ट्रैफिक को पूरा करने के लिए डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को 2025 तक 23 बिलियन अमरीकी डॉलर यानी करीब एक लाख 74 हजार करोड़ रुपए के निवेश की जरूरत है। यह हमारे 2022 के कुल केंद्रीय बजट का करीब 4.6 प्रतिशत है। जहां सरकार स्वास्थ्य और शिक्षा पर दो और तीन प्रतिशत खर्च करने के प्रति भी उदासीन है, वहां डिजिटल संरचना पर वह इतना खर्च करेगी, इसके बारे में आस लगाना भी मूर्खता है। ऐसे में बहुत जल्द हालात बदलने वाले नहीं हैं और गांव—शहर, गरीब—अमीर, कमजोर—ताकतवर के बीच डिजिटल खाई आने वाले कुछ वर्षों तक तो जस-की-तस ही रहने वाली है।
गेमिंग, बैंकिंग, सोशल मीडिया और यूटिलिटी एप के चार पायों पर खड़े डिजिटल इंडिया और आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, महिला की पहचान से जूझते जमीनी भारत के बीच की खाई में वे सारी उम्मीदें दफ्न हैं, जिनके भरोसे हमारे किसान, युवा, मजदूर, छात्र वर्चुअल दुनिया में वैश्विक नागरिक होने का सपना देख सकते हैं। यहां यह बात समझना भी बेहद जरूरी है कि डिजिटल होते देश में एक नई भाषा तैयार हो रही है। इसमें सबसे कमजोर, सबसे वंचित और सबसे गरीब व्यक्ति की आवाज को ‘म्यूट’ कर देने की सारी तरकीबें शामिल हैं।
आजादी के वक्त जब हमारे देश की आम जनता ठीक से पढ़ना नहीं जानती थी, उस वक्त सरकारी और प्रभुत्वशाली वर्ग अंग्रेजी के साथ हिंदी में अपना काम करता था। जैसे-तैसे आम जनता ने थोड़ी-बहुत शिक्षा हासिल की तो ताकतवरों ने कामकाज की भाषा को चालाकी से सिर्फ अंग्रेजी में रूपांतरित कर दिया। और अब, जबकि वंचित समाज के बीच से कई अंग्रेजी जानने-समझने वाले निकल आए हैं, तो देश का नीति-नियंता वर्ग एक बार फिर अपनी भाषा को डिजिटल कर रहा है। इससे एक पूरी आबादी जो फिलहाल जैसे-तैसे की-बोर्ड पर नंबर दबाना या कंप्यूटर पर शुरुआती काम करना सीखी है, उसे सिस्टम से बाहर कर दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र की ईवाय—डीआईपीए रिपोर्ट के मुताबिक 2025 तक देश में 33 करोड़ नागरिकों की पहुंच 5जी सेवाओं तक होगी। इनमें से अगर एक करोड़ भी हाशिए के समुदाय के साथी शामिल होंगे तो वे हालात को बदलने के कारगर उपाय कर सकते हैं। इंटरनेट शिक्षा और डिजिटल तकनीक की जमीनी समझ को जनता तक पहुंचाने का कार्यभार जिन साथियों पर है, अगर आज से ही वे इस काम को पूरी मुस्तैदी से जुट जाएं तो पांच से 10 साल में हालात के बदलने की उम्मीद की जा सकती है। (सप्रेस)
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